नमस्ते दोस्तों,
भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का अंतिम श्लोक (72) सारगर्भित है और यह उन सभी शिक्षाओं का निष्कर्ष है जो भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्थिरबुद्धि (स्थिरप्रज्ञ) के बारे में दीं। यह श्लोक उस परम अवस्था (Ultimate State) का वर्णन करता है जिसे योगी या ज्ञानी पुरुष अपने जीवन काल में प्राप्त करता है।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है और इसे प्राप्त करने के बाद क्या होता है।
श्लोक 72: ब्राह्मी स्थिति
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।। (72)
अर्थ: हे पार्थ! यह ब्राह्मी स्थिति है, इसे प्राप्त करके मनुष्य मोहग्रस्त नहीं होता। इस स्थिति में अंतकाल (मृत्यु के समय) में भी स्थित रहने वाला पुरुष ब्रह्मनिर्वाण (परम शांति, मोक्ष) को प्राप्त करता है।
आज के लिए सार: यह श्लोक गीता के दूसरे अध्याय के सभी उपदेशों का चरम लक्ष्य और सबसे बड़ा लाभ प्रस्तुत करता है।
1. ब्राह्मी स्थिति क्या है?
ब्राह्मी स्थिति (The Brahmi State) उस अवस्था को कहते हैं जब व्यक्ति अपनी चेतना को ब्रह्म (परम सत्य, परम तत्व) में पूरी तरह से स्थिर कर लेता है।
यह श्लोक 55 से शुरू हुए 'स्थिरप्रज्ञ' के लक्षणों की प्राप्ति का अंतिम परिणाम है।
यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा), ममता (मेरापन) और अहंकार (मैं कर्ता हूँ) से पूरी तरह मुक्त हो जाता है।
यह अवस्था भौतिक संसार की हलचल से प्रभावित नहीं होती।
इसे जीवतमुक्ति (जीवनकाल में ही मुक्ति) की अवस्था भी कहा जाता है।
2. मोह से मुक्ति (No Delusion)
श्लोक कहता है: "नैनां प्राप्य विमुह्यति" (इसे प्राप्त करके मनुष्य मोहग्रस्त नहीं होता)।
मोह का अर्थ: मोह का अर्थ है भ्रम—यानी, संसार को जैसा है वैसा न देखकर, उसे झूठी आसक्ति और पहचान के चश्मे से देखना। मोह ही सभी दुखों का मूल कारण है।
मोह की समाप्ति: जब व्यक्ति ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर लेता है, तो वह सत्य और असत्य के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से जानता है। वह न तो सुख से अत्यधिक प्रसन्न होता है, और न दुःख से विचलित। वह जानता है कि शरीर अस्थायी है, लेकिन आत्मा शाश्वत है।
इस मोह की समाप्ति ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
3. ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति (Attaining Brahma-Nirvana)
श्लोक का अंतिम भाग सबसे महत्वपूर्ण है: "स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति" (इस स्थिति में मृत्यु के समय भी स्थित रहने वाला पुरुष ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त करता है)।
मृत्यु का महत्व: भारतीय दर्शन में, व्यक्ति की अंतिम चेतना (अंतकाल की भावना) उसके अगले जन्म की दिशा निर्धारित करती है।
ब्रह्मनिर्वाण: इसका अर्थ है ब्रह्म में विलीन हो जाना या परम शांति को प्राप्त करना। जो व्यक्ति जीवन भर इंद्रियों और मन को वश में करके ब्राह्मी स्थिति में स्थित रहता है, उसके लिए मृत्यु एक भयानक अंत नहीं, बल्कि परम मुक्ति का द्वार बन जाती है।
निष्कर्ष
श्लोक 72 हमें बताता है कि जीवन में सच्चा लक्ष्य धन कमाना या प्रसिद्धि पाना नहीं है, बल्कि आंतरिक चेतना की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करना है—यानी ब्राह्मी स्थिति।
इस अवस्था को पाने के लिए हमें हर दिन अभ्यास करना होगा: अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करें, आसक्ति को त्यागें और अहंकार को दूर करें।
यदि हम अपने जीवन काल में इस परम ज्ञान और शांति को पा लेते हैं, तो हमारी ज़िंदगी न केवल सफल होगी, बल्कि हमारी मृत्यु भी मोक्ष की ओर ले जाने वाली होगी।
धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.

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