नमस्ते दोस्तों,
पिछले लेख में हमने 'गीता मनन' की यात्रा शुरू की थी और जाना था कि कैसे पहला अध्याय हमारे मन की दुविधाओं का दर्पण है। अब, दूसरे अध्याय 'सांख्य योग' में, भगवान कृष्ण अर्जुन को इस मानसिक उलझन से बाहर निकालने का मार्ग दिखाते हैं।
आइए, दूसरे अध्याय के दूसरे और तीसरे श्लोकों पर विचार करें, जिनमें भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं:
श्लोक 2
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।।
इसका अर्थ है: हे अर्जुन! इस विषम परिस्थिति में तुममें यह मोह, यह नपुंसकता कहाँ से आ गई? यह न तो श्रेष्ठ मनुष्यों का आचरण है, न ही स्वर्ग को देने वाला है और न ही कीर्ति (यश) को बढ़ाने वाला है।
भावार्थ: यह श्लोक हमें तब जगाता है, जब हम जीवन की किसी चुनौती के सामने हार मानने लगते हैं। 'नपुंसकता' का यहाँ अर्थ है मानसिक दुर्बलता या कायरता। जब हम किसी मुश्किल काम से भागते हैं, या डर के कारण कोई निर्णय नहीं ले पाते, तो यह श्लोक हमें खुद से सवाल करने के लिए प्रेरित करता है। यह हमें याद दिलाता है कि समस्याओं से भागना या डरना एक श्रेष्ठ व्यक्ति का गुण नहीं है, और ऐसा करने से हमें न तो कोई सम्मान मिलता है और न ही आंतरिक शांति।
श्लोक 3
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।।
इसका अर्थ है: हे पृथा-पुत्र अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता। हे शत्रुओं को ताप पहुँचाने वाले! हृदय की इस तुच्छ कमजोरी को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।
भावार्थ: यह श्लोक दूसरे श्लोक का ही विस्तार है और इसमें भगवान कृष्ण सीधे शब्दों में अर्जुन को चुनौती देते हैं। यह 'उठो और सामना करो' का सीधा संदेश है।
"क्लैब्यं मा स्म गमः" (नपुंसकता को मत प्राप्त हो): आज की दुनिया में, हम अक्सर अपनी समस्याओं को टालते रहते हैं। जब हमें किसी बड़ी असफलता का सामना करना पड़ता है, तो हम हार मान लेते हैं। यह श्लोक हमें उस मानसिक हार को स्वीकार करने से रोकता है।
"क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ" (हृदय की इस तुच्छ कमजोरी को त्यागकर खड़ा हो जा): यह हमें सिखाता है कि डर और संदेह सिर्फ़ हमारे मन की एक छोटी सी कमजोरी हैं। वे इतने बड़े नहीं हैं कि हमारे जीवन को नियंत्रित करें। यह श्लोक हमें उस कमजोरी को पहचानकर उसे छोड़ने और साहस के साथ अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
इन दोनों श्लोकों का सार यह है कि जीवन में चुनौतियाँ आएंगी, लेकिन हमें डर और मोह के कारण हार नहीं माननी चाहिए। हमें अपनी मानसिक दुर्बलता को त्यागकर साहस के साथ हर परिस्थिति का सामना करना चाहिए। यही एक योद्धा का, और एक श्रेष्ठ व्यक्ति का, धर्म है।
मुझे आशा है कि मैं आपको श्रीमद भगवद्गीता के इन दोनों श्लोकों में निहीत अर्थ को समझाने में सफल रहा हूँ। अगले रविवार फिर मिलेंगे आगे आने वाले श्लोकों के विचार-मंथन के साथ।
धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.
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