#141. गीता मनन: अशांति से विनाश और शांति से बुद्धि की स्थिरता (अध्याय 2, श्लोक 66-68)

नमस्ते दोस्तों,

भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का यह अंतिम खंड, जिसे 'स्थिरप्रज्ञ के लक्षण' का उपसंहार माना जाता है, हमें मानसिक शांति और आत्म-नियंत्रण का अंतिम महत्व समझाता है। भगवान श्री कृष्ण यहाँ स्पष्ट करते हैं कि जो व्यक्ति इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं रखता, वह कभी भी सच्चा सुख और सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।

श्लोक 66 से 68 हमें यह सिखाते हैं कि इंद्रियों के पीछे भागने से किस तरह व्यक्ति का संपूर्ण जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, और शांति ही स्थिरता की कुंजी है।


श्लोक 66: अशांत मन में शांति और बुद्धि नहीं

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।। (66)

अर्थ: अयुक्त पुरुष (असंयमी व्यक्ति) में न तो निश्चयात्मक बुद्धि होती है, और न ही उसके अंदर भाव (स्थिर चिंतन) होता है। भाव रहित मनुष्य को शांति नहीं मिल सकती, और अशांत मनुष्य को सुख कहाँ से प्राप्त हो सकता है?

आज के लिए सार: यह श्लोक अशांति के विनाशकारी चक्र को स्थापित करता है।

  • अयुक्तस्य: यहाँ 'अयुक्त' का अर्थ है जिसका मन योग (संतुलन) में नहीं है, यानी जिसका अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं है।

  • बुद्धि का अभाव: एक असंयमी मन स्पष्ट और निश्चयात्मक निर्णय नहीं ले सकता। उसका मन लगातार भटकता रहता है, जिससे वह किसी भी काम में एकाग्र नहीं हो पाता।

  • सुख की अनुपस्थिति: जब मन में शांति नहीं है, तो बाहरी भौतिक सुख कितना भी हो, वह वास्तविक आनंद नहीं दे सकता। अशांत मन हमेशा बेचैन रहता है और अपनी खुशी को किसी अगली चीज़ पर टालता रहता है।


श्लोक 67: भटकती इंद्रियाँ बुद्धि को हर लेती हैं

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।। (67)

अर्थ: क्योंकि जिस प्रकार जल में चलने वाली नाव को तेज हवा हर लेती है (उसे लक्ष्य से भटका देती है), उसी प्रकार विचरण करती हुई इंद्रियों में से जिस एक इंद्रिय के साथ मन लग जाता है, वह इंद्रिय उसकी बुद्धि को हर लेती है

आज के लिए सार: यह श्लोक इंद्रियों की शक्ति और एकाग्रता के खतरे को समझाता है।

  • नाव और हवा का दृष्टांत: हमारी बुद्धि एक नाव की तरह है, और हमारी इंद्रियाँ (आँख, कान, जीभ आदि) वे तेज हवाएँ हैं जो इसे भटकाने की ताक में रहती हैं।

  • एक इंद्रिय का ख़तरा: कृष्ण कहते हैं कि केवल एक भी इंद्रिय, जिसे मन नियंत्रित नहीं कर पाता, वह पूरी बुद्धि (विवेक और निर्णय लेने की क्षमता) को नष्ट कर सकती है।

    • उदाहरण: यदि आपकी आँखें या मन सोशल मीडिया की ओर बहुत ज़्यादा आकर्षित होता है, तो वह 'हवा' आपकी बुद्धि को आपके ज़रूरी काम (लक्ष्य) से भटका देगी।


श्लोक 68: जिसकी इंद्रियाँ वश में हैं, वही स्थिरप्रज्ञ है

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। (68)

अर्थ: इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की सभी इंद्रियाँ इंद्रियों के विषयों (भोगों) से हर प्रकार से वश में कर ली गई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है।

आज के लिए सार: यह श्लोक स्थिरप्रज्ञ की अंतिम परिभाषा देता है।

  • संपूर्ण नियंत्रण: स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति वह है जिसने सभी इंद्रियों पर—सिर्फ़ एक पर नहीं, बल्कि सर्वशः (पूरी तरह)—नियंत्रण पा लिया है।

  • बुद्धि की स्थिरता: जब इंद्रियाँ शांत होती हैं, तो मन विचलित नहीं होता। जब मन विचलित नहीं होता, तो बुद्धि स्पष्ट और स्थिर रहती है, और तभी आप सही निर्णय ले पाते हैं।


निष्कर्ष

यह खंड हमें एक स्पष्ट संदेश देता है: बाहरी सफलता की कुंजी आंतरिक शांति में है।

अगर आप जीवन में प्रभावी और सफल होना चाहते हैं, तो सबसे पहले अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित करना सीखें। अगर आपका मन अशांत रहेगा, तो आपको कभी वास्तविक सुख और स्पष्ट बुद्धि नहीं मिलेगी। अपनी नाव (बुद्धि) को भटकाने वाली हवाओं (इंद्रियों) को वश में करें।

शांति ही सबसे बड़ी शक्ति है।

धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.

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