नमस्ते दोस्तों,
भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का यह भाग अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें भगवान श्री कृष्ण मानव के पतन के संपूर्ण चक्र (Cycle of Ruin) को समझाते हैं। यह चक्र हमें बताता है कि कैसे एक छोटी सी आसक्ति (Attachment) हमें धीरे-धीरे विनाश की ओर ले जाती है, और इससे बचने का एकमात्र रास्ता क्या है।
श्लोक 62 से 65 हमें सिखाते हैं कि मनुष्य अपनी सोच से कैसे अपने स्वयं का शत्रु बन जाता है, और स्थिर बुद्धि पाने के लिए क्या करना ज़रूरी है।
श्लोक 62: विनाश की शृंखला का आरंभ (The Cycle Begins)
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।। (62)
अर्थ: विषयों (संसार की वस्तुओं) का चिंतन करने वाले पुरुष को उनमें आसक्ति (संग) उत्पन्न हो जाती है। आसक्ति से कामना (इच्छा) जन्म लेती है, और कामना में बाधा पड़ने से क्रोध पैदा होता है।
आज के लिए सार: यह श्लोक बताता है कि हमारी समस्या किसी बाहरी वस्तु में नहीं, बल्कि हमारे मन के चिंतन में है।
विनाश की शुरुआत: यह चक्र केवल चिंतन (Dhyana) से शुरू होता है। जब आप लगातार किसी विषय (जैसे, कोई नई गैजेट, धन, या किसी व्यक्ति की तारीफ़) के बारे में सोचते हैं, तो उससे आसक्ति (Attachment) पैदा होती है।
कामना (Desire): आसक्ति इतनी बढ़ जाती है कि वह कामना (अत्यधिक इच्छा) में बदल जाती है।
क्रोध (Anger): जब यह कामना पूरी नहीं होती, तो व्यक्ति को क्रोध आता है। यह क्रोध किसी बाहरी वस्तु पर नहीं, बल्कि उस कामना को पूरा न कर पाने की हताशा पर होता है।
श्लोक 63: पतन का अंतिम चरण
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। (63)
अर्थ: क्रोध से सम्मोह (अज्ञान या मूढ़ता) उत्पन्न होता है, सम्मोह से स्मृति का भ्रम (सही-ग़लत की याददाश्त खोना) होता है, स्मृति के भ्रम से बुद्धि का नाश होता है, और बुद्धि का नाश होने से मनुष्य पूरी तरह नष्ट हो जाता है।
आज के लिए सार: यह श्लोक दिखाता है कि कैसे क्रोध हमारे जीवन को नष्ट कर देता है।
सम्मोह (Delusion): क्रोध में व्यक्ति भ्रमित हो जाता है; वह भूल जाता है कि वह किसके साथ बात कर रहा है और उसके कार्य के क्या परिणाम होंगे।
स्मृति विभ्रम (Loss of Memory): वह अपने विवेक (Conscience) और ज्ञान को भूल जाता है।
बुद्धिनाश (Destruction of Intelligence): जब ज्ञान और विवेक खो जाता है, तो व्यक्ति मूर्खतापूर्ण और विनाशकारी निर्णय लेता है, जिससे उसका पतन निश्चित हो जाता है।
यह क्रम हमें सिखाता है: अगर आपको क्रोध पर नियंत्रण पाना है, तो आपको उसके मूल कारण—विषयों के प्रति चिंतन और आसक्ति—पर नियंत्रण पाना होगा।
श्लोक 64: शांति और प्रसाद का मार्ग
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।। (64)
अर्थ: लेकिन जो संयमी पुरुष राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) से रहित होकर, अपने वश में की हुई इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता है, वह प्रसन्नता (प्रसाद) को प्राप्त करता है।
आज के लिए सार: यह श्लोक विनाश से बचने का समाधान देता है।
दुनिया में रहो, पर आसक्त मत हो: कृष्ण यह नहीं कहते कि दुनिया छोड़ दो। वह कहते हैं कि इंद्रियों को वश में करके विषयों में विचरण करो।
राग-द्वेष से मुक्ति: इसका मतलब है कि आप काम तो करें, पर आपका मन उस विषय से बंधा न हो। आप सफल हों तो अति-उत्साहित न हों, और असफल हों तो हताश न हों।
प्रसाद (Serenity): जब आप इस तरह से काम करते हैं, तो आपको प्रसन्नता, शांति और निर्मलता (Prasada) मिलती है—यही स्थिर बुद्धि की निशानी है।
श्लोक 65: प्रसाद ही सभी दुखों का अंत है
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।। (65)
अर्थ: प्रसन्नता (प्रसाद) प्राप्त होने पर उसके सभी दुःखों का अंत हो जाता है, और उस प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि बहुत शीघ्र स्थिर हो जाती है।
आज के लिए सार: यह श्लोक बताता है कि शांति ही सभी समस्याओं का समाधान है।
दुःखों का अंत: जब मन शांत (प्रसन्न) होता है, तो बाहरी परिस्थितियाँ दुःख नहीं दे पातीं।
बुद्धि की स्थिरता: एक शांत मन (प्रसन्नचेतस) ही स्पष्ट और सही निर्णय ले सकता है। जब आपकी बुद्धि स्थिर हो जाती है, तो आप 62-63 श्लोक में बताए गए पतन के चक्र से हमेशा के लिए बाहर निकल जाते हैं।
निष्कर्ष
यह खंड हमें सिखाता है कि अपने मन के चिंतन पर ध्यान देना सबसे ज़रूरी है। अगर आप अपने मन को लगातार नकारात्मक या व्यर्थ विषयों में लगाते हैं, तो आप विनाश के चक्र की ओर बढ़ रहे हैं।
अगर आप शांत और सफल होना चाहते हैं, तो: अपने मन को नियंत्रित करें, अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करें, और हर हाल में समता (Equanimity) बनाए रखें।
धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.
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