नमस्ते दोस्तों,
भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का यह भाग, जिसे स्थिरप्रज्ञ के लक्षण (Characteristics of Sthitaprajna) के अंतर्गत समझाया गया है, अत्यंत व्यावहारिक है। भगवान श्री कृष्ण अब अर्जुन को यह बता रहे हैं कि इंद्रियों पर नियंत्रण करना कितना मुश्किल है, और इसका सही तरीका क्या है।
श्लोक 59 से 61 हमें सिखाते हैं कि केवल विषयों को छोड़ने से काम नहीं चलेगा; हमें विषयों के स्वाद (आसक्ति) को छोड़ना होगा।
श्लोक 59: स्वाद को छोड़ना ज़रूरी है, सिर्फ़ विषय को नहीं
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।। (59)
अर्थ: जो मनुष्य इंद्रियों के विषयों का सेवन नहीं करता (अर्थात निराहारी रहता है), उसके विषय तो छूट जाते हैं, पर उनमें रहने वाला स्वाद (आसक्ति) नहीं छूटता। यह स्वाद (आसक्ति) भी परमात्मा को देखने के बाद छूट जाता है।
आज के लिए सार: यह श्लोक आंतरिक और बाहरी संयम के बीच का अंतर समझाता है।
निराहार का अर्थ: 'निराहार' का मतलब केवल उपवास (fasting) करना नहीं है। इसका अर्थ है बाहरी रूप से इंद्रियों के विषयों (जैसे स्वादिष्ट भोजन, मनोरंजन, आदि) से दूर रहना।
अधूरी तपस्या: कृष्ण कहते हैं कि अगर आप बाहरी तौर पर किसी चीज़ को छोड़ भी दें (जैसे, आप टीवी देखना छोड़ दें), लेकिन आपके मन में अभी भी उसे देखने का स्वाद (रस) या लालसा बची हुई है, तो आपका संयम अधूरा है।
परं दृष्ट्वा निवर्तते: यह सबसे महत्वपूर्ण पंक्ति है। इंद्रियों का सच्चा त्याग तभी होता है जब आपको परम सत्य (ईश्वर, आत्म-ज्ञान) का अनुभव हो जाता है। जब आपको कोई उच्च आनंद मिल जाता है, तब निम्न आनंद (विषयों का स्वाद) अपने आप छूट जाता है। जैसे, जब आपको अमृत मिल जाए, तो आप साधारण पानी पीने का आग्रह छोड़ देते हैं।
श्लोक 60: मन की शक्ति को पहचानो
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः। इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।। (60)
अर्थ: हे कुन्तीपुत्र! यत्न करते हुए (प्रयत्नशील) बुद्धिमान पुरुष की भी प्रमाथी (विक्षुब्ध करने वाली) इंद्रियाँ, बलपूर्वक उसके मन को हर लेती हैं।
आज के लिए सार: यह श्लोक हमें ईमानदारी से बताता है कि इंद्रियों पर नियंत्रण कितना कठिन है।
विपश्चितः (बुद्धिमान): कृष्ण स्वीकार करते हैं कि भले ही कोई व्यक्ति ज्ञानी हो, समझदार हो और प्रयत्नशील हो (अर्थात कोशिश कर रहा हो), फिर भी उसकी इंद्रियाँ इतनी शक्तिशाली होती हैं कि वे बलपूर्वक उसके मन को विषयों की ओर खींच लेती हैं।
प्रमाथीनि (विक्षुब्ध करने वाली): इंद्रियाँ हमें अशांत करती हैं। यह श्लोक हमें आत्म-दया सिखाता है—अगर आपका मन भटक रहा है, तो यह सामान्य है, क्योंकि इंद्रियाँ प्राकृतिक रूप से विक्षुब्ध करने वाली होती हैं।
श्लोक 61: योग में स्थित होने का मार्ग
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। (61)
अर्थ: इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उन सभी इंद्रियों को वश में करके मेरे परायण (मुझमें स्थित) होकर बैठे। क्योंकि जिसकी इंद्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है।
आज के लिए सार: यह श्लोक इंद्रिय संयम का समाधान प्रस्तुत करता है।
युक्त आसीत मत्परः (मुझमें स्थित हो जाओ): कृष्ण कहते हैं कि इंद्रियों को नियंत्रित करने का सबसे प्रभावी तरीका सिर्फ़ 'न' कहना नहीं है, बल्कि मन को किसी उच्च लक्ष्य (इस संदर्भ में, भगवान में) में लगाना है। जब आप अपने मन को किसी महान उद्देश्य या ईश्वर में केंद्रित कर देते हैं, तो छोटी-छोटी विषय-वासनाएँ अपने आप कमज़ोर पड़ जाती हैं।
स्थिर बुद्धि: जिसकी इंद्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर (Sthitaprajna) होती है। यह लीडरशिप और जीवन में स्पष्टता के लिए अपरिहार्य है।
निष्कर्ष
यह खंड हमें सिखाता है कि आसक्ति (Attachment) ही हमारी सबसे बड़ी दुश्मन है। बाहरी दिखावा काम नहीं करता।
अगर आप आज की दुनिया में डिस्ट्रैक्शन (Distractions) से लड़ना चाहते हैं, तो सिर्फ़ सोशल मीडिया को बंद मत कीजिए। इसके बजाय, अपने मन को किसी रचनात्मक कार्य, सेवा, या आध्यात्मिक अभ्यास में लगाइए। जब आप किसी उच्च लक्ष्य में लीन हो जाते हैं, तो निम्न स्वाद अपने आप छूट जाता है।
अपने मन को कहीं और लगाओ, संयम अपने आप आ जाएगा।
धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.
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