नमस्ते दोस्तों,
गीता की यात्रा में अब तक, भगवान श्री कृष्ण ने पहले आत्मा के अमरत्व (सांख्य योग) को समझाया, और फिर कर्तव्य पालन (स्वधर्म) का महत्व बताया। अब, वह अर्जुन को एक ऐसे रास्ते पर ले जा रहे हैं जो हमारे आज के जीवन के लिए सबसे बड़ा मार्गदर्शन है: बुद्धि योग, यानी योग में कुशलता।
यह भाग हमें सिखाता है कि अपने काम को किस मानसिक स्थिति के साथ किया जाए, ताकि हमें शांति और सफलता दोनों मिलें।
श्लोक 39-40: प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु। बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। (39)
अर्थ: हे पार्थ, यह बुद्धि (ज्ञान) तो तुम्हें सांख्य योग के विषय में कही गई। अब तुम कर्मयोग के विषय में इस बुद्धि को सुनो, जिससे युक्त होकर तुम कर्मों के बंधन को पूरी तरह से नष्ट कर दोगे।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। (40)
अर्थ: इस कर्मयोग में आरंभ का (किया हुआ) नाश नहीं होता और न कोई उल्टा फल (विपरीत परिणाम) होता है। इस धर्म का थोड़ा-सा भी अभ्यास बड़े भय से रक्षा कर लेता है।
आज के लिए सार: यह श्लोक आज के दौर में काम करने वाले हर व्यक्ति के लिए एक बड़ा आश्वासन है। कृष्ण कहते हैं कि बुद्धि योग (सही सोच के साथ कर्म करना) वह रास्ता है जहाँ आपका प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता। अगर आप कोई बड़ा प्रोजेक्ट शुरू करते हैं और वह बीच में रुक जाता है, तो भी आपका सीखा हुआ कौशल, आपका अनुभव और आपका समय नष्ट नहीं होता। इसका थोड़ा-सा भी अभ्यास (जैसे, प्रतिदिन थोड़ी देर ध्यान या ईमानदारी से काम) आपको असफलता के सबसे बड़े डर से बचाता है।
श्लोक 41: एकाग्र मन की शक्ति
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।। (41)
अर्थ: हे कुरुनन्दन! इस कर्मयोग में निश्चयवाली बुद्धि (दृढ़ संकल्प) एक ही होती है। पर जो अनिश्चय वाले हैं, उनकी बुद्धि अनेक भेदों वाली और अनन्त होती है।
आज के लिए सार: यह श्लोक फोकस की महत्ता समझाता है।
सफल मन (व्यवसायात्मिका बुद्धि): वह है जिसका लक्ष्य एक और स्पष्ट होता है। वह जानता है कि उसे क्या करना है और किस दिशा में जाना है।
भटका हुआ मन (अव्यवसायिनाम्): उसकी बुद्धि बहुत सारी शाखाओं (बहुशाखा) में बंटी होती है। वह एक साथ 10 काम शुरू करता है, 20 सपने देखता है, और किसी एक पर टिक नहीं पाता।
अगर आप अपनी ज़िंदगी में सफलता चाहते हैं, तो सबसे पहले अपनी बुद्धि को एकाग्र करें।
श्लोक 42-44: बाहरी चमक और आंतरिक अशांति
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।। (42)
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्। क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।। (43)
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।। (44)
अर्थ: हे पार्थ, जो अविवेकी लोग वेदों की उन लुभावनी बातों में लीन रहते हैं, जो कहते हैं कि 'इसके अलावा और कुछ नहीं है' (जो केवल स्वर्ग, जन्म और कर्मों के फल देने वाली, तथा भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए बहुत सी क्रियाओं का वर्णन करती हैं)। ऐसे भोग और ऐश्वर्य में आसक्त, उन बातों से जिनका चित्त हर लिया गया है, उनकी निश्चयवाली बुद्धि समाधि (स्थिरता) में नहीं लगती।
आज के लिए सार: यहाँ कृष्ण उन लोगों की आलोचना करते हैं जो केवल बाहरी चमक और भौतिक सुख के पीछे भागते हैं (आज की भाषा में कहें तो, उपभोक्तावाद)। वे उस ज्ञान को नकारते हैं जो उन्हें तुरंत लाभ नहीं देता।
लुभावनी बातें (पुष्पितां वाचम्): आज यह सोशल मीडिया पर दिखाई जाने वाली वह चमक है जो हमें तुरंत अमीर, खुश या सफल होने का वादा करती है।
भोग और ऐश्वर्य में आसक्त: जो लोग केवल इन चीज़ों के पीछे भागते हैं, उनकी बुद्धि कभी शांत और स्थिर (समाधि) नहीं हो पाती।
कृष्ण हमें चेतावनी देते हैं कि जब आपका मन अंतहीन सुखों और भोगों की चाहत में भटकता है, तो आप कभी भी गहरे फोकस या वास्तविक शांति को प्राप्त नहीं कर सकते।
निष्कर्ष
बुद्धि योग का सार सरल है: अपने काम को पूरी एकाग्रता और ईमानदारी से करो, लेकिन उसके तुरंत और केवल भौतिक फल से आसक्त मत होओ।
आपकी शक्ति आपके भीतर है, बाहरी चमक-दमक में नहीं। अपनी बुद्धि को स्थिर करें, अपने उद्देश्य को एक रखें, और जान लें कि आपका प्रयास ही आपकी असली सफलता है।
यदि आप भी अपने मन की भटकी हुई शाखाओं को एक करना चाहते हैं, तो कर्मयोग के इस मार्ग पर चलना शुरू करें।
धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.
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