नमस्ते दोस्तों,
भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का यह भाग सबसे दार्शनिक और व्यावहारिक है। अब तक, भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का सिद्धांत सिखाया। अब, अर्जुन एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न पूछते हैं (श्लोक 54):
"हे केशव! यह स्थितप्रज्ञ पुरुष कौन है? वह कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?"
इस प्रश्न के उत्तर में, कृष्ण एक स्थिरप्रज्ञ (Sthitaprajna) व्यक्ति—यानी स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति—के लक्षण बताते हैं। ये लक्षण आज के भागदौड़ भरे जीवन में मानसिक शांति और सफलता पाने का ब्लूप्रिंट हैं।
श्लोक 55: इच्छाओं का त्याग
श्रीभगवानुवाच:
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।। (55)
अर्थ: श्री भगवान बोले—हे पार्थ! जब मनुष्य मन में स्थित सभी कामनाओं (इच्छाओं) को पूरी तरह से त्याग देता है, और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
आज के लिए सार: स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति का पहला लक्षण यह है कि वह बाहरी चीज़ों पर निर्भर नहीं रहता।
- सभी कामनाओं का त्याग: इसका मतलब यह नहीं कि आप कोई काम ही न करें। इसका मतलब है कि आपकी खुशी, आपका आत्मविश्वास, आपकी शांति—ये सब इच्छाओं की पूर्ति पर निर्भर न करें। 
- आत्मन्येवात्मना तुष्टः: वह व्यक्ति अपने भीतर ही संतुष्टि ढूँढ लेता है। वह खुद में पूर्ण है। उसे खुद को खुश करने या साबित करने के लिए लगातार बाहरी उपलब्धियों की ज़रूरत नहीं होती। 
श्लोक 56: द्वंद्वों से मुक्ति
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। (56)
अर्थ: जिसके मन में दुःख आने पर उद्वेग (परेशानी या घबराहट) नहीं होता, सुख के लिए जिसकी कोई लालसा (स्पृहा) नहीं होती, और जो राग (आसक्ति), भय और क्रोध से रहित होता है, उसे स्थिर बुद्धि वाला मुनि कहा जाता है।
आज के लिए सार: यह श्लोक भावनात्मक संतुलन की परिभाषा है।
- दुःख और सुख में समता: स्थिरप्रज्ञ व्यक्ति दुःख में घबराता नहीं है और सुख में बहक नहीं जाता। वह जानता है कि दोनों ही अवस्थाएँ अस्थायी हैं। 
- राग, भय और क्रोध से मुक्ति: ये तीन भावनाएँ हमारी मानसिक शांति की सबसे बड़ी दुश्मन हैं। - राग (आसक्ति/अत्यधिक प्रेम): चीजों के प्रति अत्यधिक लगाव। 
- भय (Fear): चीज़ों को खोने का डर। 
- क्रोध (Anger): इच्छाएँ पूरी न होने पर होने वाली निराशा। 
 - जो व्यक्ति इन तीनों पर विजय पा लेता है, वही आज के जीवन में सबसे शक्तिशाली और शांत व्यक्ति होता है। 
श्लोक 57 और 58: इंद्रियों पर नियंत्रण
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। (57)
अर्थ: जो पुरुष सब जगह स्नेह (मोह) रहित है; उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को पाकर न तो प्रसन्न होता है और न ही द्वेष (नफ़रत) करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। (58)
अर्थ: और जब यह पुरुष, कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार इंद्रियों के विषयों (रूप, रस, गंध आदि) से अपनी इंद्रियों को पूरी तरह से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
आज के लिए सार: ये श्लोक बाहरी उत्तेजनाओं पर नियंत्रण सिखाते हैं।
- शुभ-अशुभ में समान भाव: चाहे कोई आपको तारीफ़ करे या बुराई, चाहे आपको लाभ हो या हानि—आपकी खुशी या दुख बाहरी घटना पर निर्भर नहीं करता। 
- कछुए का दृष्टांत (The Turtle Analogy): यह सबसे बड़ा व्यावहारिक उदाहरण है। हमारी इंद्रियाँ (आँखें, कान, जीभ, आदि) लगातार बाहरी दुनिया की तरफ भागती हैं (सोशल मीडिया, स्वाद, आवाज़)। स्थिरप्रज्ञ व्यक्ति कछुए की तरह होता है—जब ज़रूरत हो, तो वह इंद्रियों को बाहर निकालता है (काम करता है), और जब ज़रूरत न हो, तो वह उन्हें भीतर समेट लेता है (शांत, एकाग्र या ध्यानस्थ होता है)। 
निष्कर्ष
स्थिरप्रज्ञ वह व्यक्ति नहीं है जो दुनिया से भाग गया हो, बल्कि वह है जिसने अपने मन को जीत लिया है।
अगर आप सफल, शांत और खुश रहना चाहते हैं, तो इन लक्षणों पर काम करें:
- बाहरी इच्छाओं पर निर्भरता छोड़ें। 
- सुख और दुःख में समान भाव रखें। 
- अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखें, ताकि वे आपको विचलित न करें। 
यह वह आंतरिक लीडरशिप है जो जीवन में सबसे बड़ी सफलता लाती है।
धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.
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