नमस्ते दोस्तों,
गीता मनन की हमारी यात्रा में, भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को आत्म-ज्ञान (सांख्य योग) और कर्तव्य-ज्ञान (स्वधर्म) दिया। अब, वह उन्हें एक ऐसा सूत्र दे रहे हैं जो जीवन के सबसे बड़े तनाव—परिणाम की चिंता—को हमेशा के लिए समाप्त कर देता है।
दूसरे अध्याय के ये तीन श्लोक (45 से 47) भगवद् गीता का सबसे प्रसिद्ध और आज के जीवन के लिए सबसे प्रासंगिक हिस्सा हैं। ये हमें सिखाते हैं कि काम को सही मनःस्थिति के साथ कैसे किया जाए।
श्लोक 45: त्रिगुणों से ऊपर उठना
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।। (45)
अर्थ: वेद मुख्य रूप से तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से संबंधित विषयों का वर्णन करते हैं; हे अर्जुन, तुम इन तीनों गुणों से ऊपर उठो। सभी द्वंद्वों (सुख-दुःख, लाभ-हानि) से मुक्त होकर, हमेशा सत्त्व गुण में स्थित रहो, और योगक्षेम (प्राप्ति और संरक्षण) की चिंता से रहित होकर आत्मवान (आत्म-जागरूक) बनो।
आज के लिए सार: कृष्ण यहाँ गुणों की बात करते हैं, जो हमें बांधते हैं। रजस हमें काम करने के लिए प्रेरित करता है, लेकिन फल की लालसा भी पैदा करता है। कृष्ण कहते हैं कि अपने काम को गुणों के प्रभाव से मुक्त करो।
द्वंद्वों से मुक्त: इसका मतलब है कि आप अपनी सफलता या असफलता को अपनी खुशी का आधार न बनाएँ।
योगक्षेम से रहित: 'योग' का अर्थ है जो हमें मिलना चाहिए (प्राप्ति) और 'क्षेम' का अर्थ है जो हमें बनाए रखना है (संरक्षण)। कृष्ण कहते हैं कि भविष्य की प्राप्ति और संरक्षण की चिंता छोड़ दो। केवल अपना वर्तमान कर्म करो।
श्लोक 46: ज्ञान का महत्व
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।। (46)
अर्थ: एक ज्ञानी ब्राह्मण के लिए सभी वेदों का उतना ही उपयोग है, जितना चारों ओर से भरे हुए जलाशय (पानी) के प्राप्त हो जाने पर छोटे कुएँ (बावड़ी) का होता है।
आज के लिए सार: यह श्लोक प्राथमिकता और सार को समझने की बात करता है। जब हमें आत्म-ज्ञान और कर्मयोग का ज्ञान हो जाता है, तो हमें छोटे-छोटे कर्मकांडों या बाहरी नियमों में उलझने की ज़रूरत नहीं रह जाती।
जैसे भरे हुए नदी या जलाशय के सामने छोटा कुआँ महत्वहीन हो जाता है, वैसे ही कर्मयोग का ज्ञान मिल जाने पर, व्यक्ति उन सभी अनावश्यक बाहरी ज्ञान और कर्मकांडों से मुक्त हो जाता है जो केवल फल की आसक्ति पैदा करते हैं। आपका आंतरिक ज्ञान सभी बाहरी नियमों से ज़्यादा महत्वपूर्ण है।
श्लोक 47: कर्मयोग का मूल मंत्र
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। (47)
अर्थ: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फलों में कभी नहीं। तुम कर्मों के फल को अपना उद्देश्य मत बनाओ, और न ही तुम्हारी आसक्ति अकर्म (कर्म न करने) में हो।
आज के लिए सार: यह गीता का सबसे प्रसिद्ध श्लोक है और आज के पेशेवर जीवन के लिए एक सीधा मार्गदर्शन है:
"कर्मण्येवाधिकारस्ते" (आपका अधिकार केवल कर्म पर है): आप सिर्फ़ अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर सकते हैं; बाज़ार की स्थिति, बॉस का मूड, या ग्राहक का निर्णय आपके नियंत्रण में नहीं है। अपनी ऊर्जा केवल उस पर लगाएँ जो आपके नियंत्रण में है—यानी आपका प्रयास।
"मा फलेषु कदाचन" (फलों में कभी नहीं): फल की चिंता करने से चिंता, तनाव और निराशा पैदा होती है। फल को अपना एकमात्र लक्ष्य न बनाएँ। आपका लक्ष्य होना चाहिए श्रेष्ठ कर्म।
"मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि" (निष्क्रियता से बचें): फल की चिंता किए बिना काम करें, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप निष्क्रिय हो जाएँ। हर हाल में अपना कर्तव्य निभाना ही सच्ची पूजा है।
निष्कर्ष
भगवान श्री कृष्ण हमें एक तनाव-मुक्त जीवन जीने का रास्ता बता रहे हैं। वह कहते हैं कि सफलता की चिंता करने से आप सफल नहीं होंगे; बल्कि अपने कर्म को प्रेम और लगन से करने से होंगे।
अगर आप आज की भागदौड़ भरी दुनिया में शांति चाहते हैं, तो यह मंत्र अपनाएँ: अपने लक्ष्य की ओर पूरे दिल से काम करें, लेकिन परिणामों को ईश्वर (या प्रकृति के नियम) पर छोड़ दें।
आपका अधिकार प्रयास पर है, परिणाम पर नहीं।
धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.
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