#92. गीता मनन: आपका धर्म, आपकी पहचान – कर्मयोग का सूत्र (अध्याय 2, श्लोक 31-38)

नमस्ते दोस्तों,

गीता मनन की पिछली कड़ियों में हमने आत्मा के अमरत्व के बारे में जाना। लेकिन ज्ञान की बात सुनकर भी अर्जुन का मन शांत नहीं हुआ। वह अपने कर्तव्य (Duty) से भागना चाहते थे। ठीक वैसे ही, जैसे हम आज के दौर में अपनी मुश्किल जिम्मेदारियों से पीछे हटने का मन बना लेते हैं।

भगवान श्री कृष्ण अब ज्ञान की बातों को कर्म (Action) से जोड़ते हुए, अर्जुन को उनके धर्म का महत्व समझाते हैं। यह शिक्षा आज के पेशेवर और व्यक्तिगत जीवन के लिए एक सीधा मार्गदर्शन है।


श्लोक 31-33: धर्म की राह ही सबसे श्रेष्ठ है

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।। (31)

अर्थ: अपने धर्म को देखते हुए भी तुम्हें विचलित नहीं होना चाहिए। क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिए और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है।

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्। सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।। (32)

अर्थ: हे पार्थ, अपने-आप प्राप्त हुए खुले स्वर्ग के द्वार रूप इस युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय ही पाते हैं।

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि। ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।। (33)

अर्थ: यदि तुम इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करोगे, तो तुम अपने धर्म और कीर्ति (यश) को खोकर पाप को प्राप्त होगे।

आज के लिए सार: कृष्ण यहाँ क्षत्रिय धर्म की बात कर रहे हैं, लेकिन आज के दौर में यह हमारे पेशेवर धर्म (Professional Dharma) या व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी को दर्शाता है। एक डॉक्टर का धर्म मरीज का इलाज करना, एक इंजीनियर का धर्म सही पुल बनाना और एक शिक्षक का धर्म सही ज्ञान देना है। कृष्ण कहते हैं कि आपके निर्धारित कर्तव्य से भागना सबसे बड़ी गलती है। अगर आप अपने डर या मोह के कारण अपनी ज़िम्मेदारी छोड़ते हैं, तो यह न केवल असफलता है, बल्कि यह आपके आत्मसम्मान और यश को भी नष्ट कर देता है।


श्लोक 34-36: अपयश, मृत्यु से भी बुरा है

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्। सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।। (34)

अर्थ: लोग तुम्हारी शाश्वत अपकीर्ति (बुराई) का भी वर्णन करेंगे, और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपकीर्ति (अपयश) तो मरण से भी बढ़कर होती है।

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः। येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।। (35)

अर्थ: जिन महारथियों ने तुम्हें बहुत सम्मान दिया है, वे समझेंगे कि तुमने डर के कारण युद्ध छोड़ दिया, और इस तरह तुम उनकी दृष्टि में हल्के हो जाओगे।

अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः। निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।। (36)

अर्थ: तुम्हारे शत्रु तुम्हारी सामर्थ्य की निंदा करते हुए अनेक अवाचनीय बातें कहेंगे। इससे अधिक दुख और क्या हो सकता है?

आज के लिए सार: इन श्लोकों में कृष्ण मान-सम्मान के महत्व को बताते हैं। एक सम्मानित व्यक्ति के लिए, प्रतिष्ठा खोना मृत्यु से भी बुरा है। अगर आप मुश्किलों से भागते हैं (जैसे, कोई प्रोजेक्ट बीच में छोड़ देना, या ज़िम्मेदारी से पीछे हटना), तो आपकी पेशेवर साख (Reputation) हमेशा के लिए ख़राब हो जाती है। यह डर कि लोग क्या कहेंगे, शायद अर्जुन को प्रेरित करने का सबसे बड़ा कारण था। कृष्ण समझाते हैं कि जीवन में सबसे बड़ा दुख आत्म-सम्मान खोना है।


श्लोक 37 और 38: प्रयास ही आपकी जीत है

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। (37)

अर्थ: या तो तुम युद्ध में मारे जाकर स्वर्ग को प्राप्त करोगे, या जीतकर पृथ्वी के सुखों का उपभोग करोगे। इसलिए, हे कुंतीपुत्र, तुम युद्ध का निश्चय करके खड़े हो जाओ।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।। (38)

अर्थ: तुम सुख-दुःख, लाभ-हानि, और जय-पराजय को समान समझकर फिर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। इस प्रकार तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा।

आज के लिए सार: यह कर्मयोग का सबसे बड़ा सूत्र है—"हेड्स, आई विन; टेल्स, आई लर्न" वाली मानसिकता। कृष्ण कहते हैं कि परिणाम चाहे जो भी हो, कर्तव्य का पालन करने में हमेशा लाभ है:

  1. सफलता (Win): आपको भौतिक फल मिलेगा (पृथ्वी का उपभोग)।

  2. असफलता (Loss/Death): आपको आध्यात्मिक विकास, ज्ञान और उच्च स्थान मिलेगा (स्वर्ग की प्राप्ति)।

सबसे महत्वपूर्ण बात श्लोक 38 में है: आपको अपना कर्म समभाव (Equanimity) से करना है। परिणाम चाहे सफलता हो या असफलता, लाभ हो या हानि, आपका मन शांत रहना चाहिए। जब आप परिणाम की चिंता किए बिना अपना धर्म निभाते हैं, तो आप पाप (तनाव, पछतावा, निराशा) से मुक्त हो जाते हैं।


निष्कर्ष

भगवद गीता का यह भाग हमें सिखाता है कि जीवन में हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य है अपने धर्म का पालन करना। आज के दौर में इसका अर्थ है: अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरी ईमानदारी और साहस से निभाना, चाहे वह आपके परिवार के प्रति हो या आपके कार्यक्षेत्र के प्रति।

अपने डर को छोड़ें। अपयश के डर से भागें नहीं। परिणाम की चिंता किए बिना अपना कर्म करें।

यही वह समभाव है जो हमें आज के प्रतिस्पर्धी और तनावपूर्ण जीवन में भी शांति और सफलता दिला सकता है।

यदि आप भी अपने मन की उलझनों से जूझ रहे हैं, तो भगवद गीता में आपको समाधान मिल सकता है।

धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.

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