नमस्ते दोस्तों,
हमारी ज़िंदगी में सबसे बड़ा डर क्या है? शायद खोने का डर। हमें अपने प्रियजनों, अपने रिश्तों और अपने भौतिक सुखों को खोने का डर होता है। यह डर हमें शोक और दुख में डुबा देता है। लेकिन क्या यह डर और शोक सही है? क्या यह डर हमें जीवन के सत्य को समझने से नहीं रोक रहा?
श्रीमद्भगवद गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 26 से 30 तक, भगवान श्री कृष्ण इसी डर और शोक का अंत करने के लिए हमें जीवन के एक और गहरे सत्य से परिचित कराते हैं।
श्लोक 26 और 27: जन्म और मृत्यु एक चक्र हैं
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्। तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।। (26)
अर्थ: यदि तुम इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाली और सदा मरने वाली भी मानते हो, तो भी हे महाबाहु अर्जुन, तुम्हें इस तरह से शोक नहीं करना चाहिए।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। (27)
अर्थ: क्योंकि जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है; और जो मरा है, उसका जन्म निश्चित है। इसलिए, जो अपरिहार्य है (जिससे बचा नहीं जा सकता), उस पर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
ये श्लोक हमें जीवन के सबसे बड़े सत्य से परिचित कराते हैं: जन्म और मृत्यु एक चक्र है। यह मौसम के बदलने जैसा है। सर्दी के बाद गर्मी आती है और गर्मी के बाद फिर से सर्दी। इसी तरह, जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म होता है। जब कोई पेड़ सूख जाता है, तो उसके बीज से एक नया पेड़ जन्म लेता है। यह एक प्राकृतिक नियम है। जब आप इस नियम को समझ जाते हैं, तो आप शोक करना छोड़ देते हैं।
श्लोक 28 और 29: प्रकट और अप्रकट स्वरूप
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।। (28)
अर्थ: हे भारत (अर्जुन), सभी जीव जन्म से पहले अप्रकट होते हैं, बीच में प्रकट होते हैं, और मरने के बाद फिर से अप्रकट हो जाते हैं। तो इसमें शोक करने की क्या बात है?
यह श्लोक हमें एक और सरल उदाहरण से समझाता है। जैसे एक बीज अप्रकट होता है, उससे पेड़ बनता है जो प्रकट होता है, और फिर वह पेड़ वापस मिट्टी में मिलकर अप्रकट हो जाता है। इसी तरह, हम भी जन्म से पहले अप्रकट थे, इस जीवन में प्रकट हुए हैं, और मृत्यु के बाद फिर से अप्रकट हो जाएँगे। हमारा वर्तमान रूप सिर्फ़ बीच का एक हिस्सा है।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः। आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।। (29)
अर्थ: कोई इस आत्मा को आश्चर्य के रूप में देखता है, कोई इसके बारे में आश्चर्य के रूप में बात करता है, कोई इसे आश्चर्य के रूप में सुनता है, लेकिन इसे सुनकर भी कोई इसे वास्तव में नहीं जानता।
यह श्लोक आत्मा के गहरे रहस्य को बताता है। भले ही हम आत्मा के बारे में जानें, सुनें या पढ़ें, फिर भी हम उसे पूरी तरह से समझ नहीं सकते। हमारी इंद्रियाँ और हमारा मन उसे पूरी तरह से नहीं जान सकता। यह हमें विनम्र बनाता है और हमें यह स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता है कि जीवन में कुछ चीजें ऐसी हैं जो हमारी समझ से परे हैं।
श्लोक 30: शोक करने का कोई कारण नहीं
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।। (30)
अर्थ: हे भारत (अर्जुन), सभी प्राणियों के शरीर में स्थित आत्मा हमेशा अविनाशी है। इसलिए, तुम्हें किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए।
यह श्लोक इस पूरे ज्ञान का सार है। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जब आत्मा अमर है, तो शोक करने का कोई कारण नहीं है।
निष्कर्ष
यह ज्ञान सिर्फ़ अर्जुन के लिए नहीं है, बल्कि हम सबके लिए है। जब हम अपने जीवन में किसी भी नुकसान का अनुभव करते हैं, तो हमें याद रखना चाहिए कि यह नुकसान केवल भौतिक है, आध्यात्मिक नहीं। हमारा असली स्वरूप, हमारी आत्मा, हमेशा सुरक्षित है।
यदि आप भी अपने मन की उलझनों से जूझ रहे हैं, तो भगवद गीता में आपको समाधान मिल सकता है।
धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.
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