#75. असंभव कुछ भी नहीं: बस सोच बदलने की बात है

नमस्ते दोस्तों,

क्या आपने कभी सोचा है कि आपके और आपके सपनों के बीच सबसे बड़ी दीवार कौन खड़ी करता है? वह दीवार कोई बाहरी बाधा नहीं, बल्कि आपकी अपनी सोच है।

यह एक ऐसा विचार है जो हमें हमारी मानसिक सीमाओं से मुक्त होने के लिए प्रेरित करता है: एकमात्र जगह जहाँ आपके सपने असंभव हो जाते हैं, वह आपकी अपनी सोच में है।

हम अक्सर अपने सपनों को इसलिए अधूरा छोड़ देते हैं क्योंकि हमें लगता है कि वे बहुत बड़े हैं, बहुत मुश्किल हैं, या हमारे लिए संभव नहीं हैं। लेकिन यह भावना बाहर से नहीं आती, यह हमारे भीतर ही पैदा होती है। यह हमारा डर है जो हमें बताता है कि 'तुम यह नहीं कर सकते'।

सोच की ताकत

हमारी सोच हमारे जीवन की दिशा तय करती है।

  • जब हम सोचते हैं कि 'यह काम असंभव है', तो हमारा दिमाग़ इसे साबित करने के लिए कारण खोजने लगता है। वह हमें बताता है कि ऐसा क्यों नहीं हो सकता।

  • लेकिन जब हम सोचते हैं कि 'मैं यह कर सकता हूँ', तो हमारा दिमाग़ समाधान खोजने लगता है। वह हमें रास्ता दिखाता है।

अगर आप एक बड़ा बिज़नेस शुरू करना चाहते हैं, लेकिन आपकी सोच आपको बताती है कि 'तुम असफल हो जाओगे', तो आप कभी शुरुआत ही नहीं कर पाएंगे। लेकिन अगर आपकी सोच आपको बताती है कि 'मैं इसे कर सकता हूँ', तो आप एक-एक कदम उठाएंगे और अपने सपने को हकीकत में बदल देंगे।

अपने सपनों को आज़ाद करें

अपने सपनों को अपनी सोच की जेल से बाहर निकालने के लिए, आपको अपनी सोच को बदलना होगा।

  1. नकारात्मक विचारों को चुनौती दें: जब भी आपके मन में कोई नकारात्मक विचार आए, तो उसे स्वीकार न करें। उससे पूछें, 'ऐसा क्यों है? क्या सच में यह असंभव है?'

  2. अपनी छोटी सफलताओं को देखें: अपनी छोटी-छोटी जीतों का जश्न मनाएँ। ये जीतें आपको यह विश्वास दिलाएँगी कि आप बड़े काम भी कर सकते हैं।

  3. खुद पर विश्वास रखें: अपनी क्षमताओं पर शक न करें। याद रखें कि हर सफल व्यक्ति ने भी कहीं से शुरुआत की थी।

निष्कर्ष

सपना देखना आसान है, लेकिन उस पर विश्वास करना मुश्किल। लेकिन यही विश्वास आपके और आपके सपनों के बीच की सबसे बड़ी खाई को पाटता है।

अपने सपनों को सिर्फ़ 'सपने' न रहने दें। उन्हें अपनी सोच से आज़ाद करें। क्योंकि जब आप अपने मन में उन्हें संभव बना लेते हैं, तो वे हकीकत में भी संभव हो जाते हैं।

धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.

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