#71. गीता मनन: अध्याय 2 - श्लोक 16-17-18 का भावार्थ

नमस्ते दोस्तों!

आज हम श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के तीन और महत्वपूर्ण श्लोकों - 16, 17 और 18 - पर चर्चा करेंगे। ये श्लोक हमें जीवन की क्षणिकता और आत्मा की स्थायित्व के बारे में एक गहरी मनोवैज्ञानिक समझ देते हैं। यह ज्ञान हमें बाहरी दुनिया के उतार-चढ़ाव से अप्रभावित रहने और अपने आंतरिक स्वरूप में स्थिरता खोजने में मदद करता है।


श्लोक 16: यथार्थ और भ्रम के बीच का अंतर

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥

अर्थात्: असत् वस्तु की सत्ता नहीं है और सत् वस्तु का अभाव नहीं है। इन दोनों का तत्त्व (यथार्थ) ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।

भावार्थ: यह श्लोक हमें 'रियलिटी चेक' (यथार्थ की परख) और 'कॉग्निटिव डिस्टॉर्शन' (संज्ञानात्मक विकृति) को समझने में मदद करता है।

  • असत् (The Unreal): यहाँ 'असत्' उन सभी चीजों को दर्शाता है जो परिवर्तनशील हैं, जैसे हमारा शरीर, हमारी संपत्ति, पद, विचार और भावनाएँ। हमारा मन अक्सर इन क्षणभंगुर चीजों में ही अपना सुख और पहचान खोजता है। जब ये बदलती हैं या नष्ट होती हैं, तो हमें दुःख होता है, क्योंकि हम इन्हें स्थायी मान लेते हैं।

  • सत् (The Real): इसके विपरीत, 'सत्' वह है जो अपरिवर्तनशील है - हमारी आत्मा, हमारा वास्तविक स्वरूप। यह वह स्थायी केंद्र है जो बाहरी दुनिया के हर बदलाव के बावजूद स्थिर रहता है।

  • समझ का महत्व: जब हम इस बात को गहराई से समझते हैं कि क्या स्थायी है और क्या अस्थायी, तो हमारा मन भ्रमों से मुक्त होता है। हम अपनी पहचान क्षणभंगुर चीजों से जोड़ना बंद कर देते हैं, जिससे हमारे अंदर एक गहरी शांति आती है। हम यह भी समझ पाते हैं कि हमारे नकारात्मक विचार और भावनाएँ भी 'असत्' हैं - वे आती हैं और चली जाती हैं - और हम उनसे खुद को कम प्रभावित होने देते हैं।


श्लोक 17: चेतना की व्यापकता

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥

अर्थात्: तुम उस (परमात्मा या आत्मा) को अविनाशी जानो, जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है। इस अव्यय (अपरिवर्तनशील) का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।

भावार्थ: यह श्लोक हमें 'कनेक्टेडनेस' (जुड़ाव) और 'सेल्फ-ट्रांसेंडेंस' (आत्म-परिवर्तन) की भावना से परिचित कराता है।

  • सर्वमिदं ततम् (All-pervading): यह श्लोक बताता है कि हमारी आत्मा या चेतना केवल हमारे शरीर तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है। मनोवैज्ञानिक रूप से, यह हमें सिखाता है कि हम अकेले नहीं हैं। हमारी चेतना दूसरों और इस पूरे ब्रह्मांड से जुड़ी हुई है। यह भावना हमें अलगाव और अकेलेपन के डर से मुक्त कर सकती है।

  • अविनाशि (Indestructible): यह जानकर कि हमारी चेतना अविनाशी है, हमारे मन से मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। जब हम शरीर को ही अपना अंत मान लेते हैं, तो जीवन में तनाव और चिंता बढ़ जाती है। लेकिन यह समझ कि हमारा वास्तविक स्वरूप कभी नष्ट नहीं होता, हमें जीवन को अधिक साहस और शांति के साथ जीने की शक्ति देती है।


श्लोक 18: शरीर की क्षणभंगुरता और कर्म का महत्व

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥

अर्थात्: यह शरीर (देह) नाशवान है, जबकि इसका स्वामी (आत्मा) अविनाशी, अप्रमेय (असीमित) और नित्य है। इसलिए, हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन, तुम युद्ध करो।

भावार्थ: यह श्लोक हमें 'एक्सेप्टेंस' (स्वीकृति) और 'पर्पस' (उद्देश्य) के महत्व को समझाता है।

  • अन्तवन्त इमे देहा (Finite Body): श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि शरीर का अंत निश्चित है। यह एक कटु सत्य है, लेकिन इसे स्वीकार करने से ही हम आगे बढ़ सकते हैं। जब हम इस सत्य को स्वीकार कर लेते हैं, तो हम अनावश्यक मोह और डर से मुक्त हो जाते हैं। यह हमें वर्तमान क्षण की कद्र करना सिखाता है, क्योंकि यही हमारे पास एकमात्र निश्चित चीज है।

  • तस्माद्युध्यस्व (Therefore, fight): इस श्लोक का सबसे शक्तिशाली हिस्सा इसका अंतिम भाग है - "युद्ध करो।" यह केवल शारीरिक युद्ध की बात नहीं है, बल्कि यह जीवन की चुनौतियों का सामना करने का आह्वान है। जब हम जान लेते हैं कि हमारा वास्तविक स्वरूप अविनाशी है, तो हमें अपने कर्तव्य और उद्देश्य को पूरा करने का साहस मिलता है, बिना परिणामों के भय के। यह हमें बताता है कि हमें अपने जीवन के लक्ष्यों को पूरी लगन से जीना चाहिए, क्योंकि शरीर तो अस्थायी है, लेकिन हमारे कर्मों का प्रभाव स्थायी होता है।

निष्कर्ष:

श्रीमद्भगवद्गीता के ये तीन श्लोक हमें एक गहरा और व्यावहारिक दृष्टिकोण देते हैं। वे हमें सिखाते हैं कि हमारे जीवन में क्या सच है और क्या भ्रम, हमें अपनी चेतना की व्यापकता को महसूस करने में मदद करते हैं, और अंततः हमें यह प्रेरणा देते हैं कि हम अपने क्षणभंगुर शरीर का उपयोग अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए करें। यह ज्ञान हमें न केवल मानसिक शांति देता है, बल्कि हमें जीवन में कर्मशील और निडर बनाता है।

धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.

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