नमस्ते दोस्तों,
ज़िंदगी में हम सब एक अजीब से द्वंद्व (duality) का अनुभव करते हैं। कभी तेज़ धूप तो कभी कड़कड़ाती ठंड। कभी कोई हमारी प्रशंसा करता है तो कभी हमारी आलोचना। कभी हम सफलता का स्वाद चखते हैं तो कभी असफलता का कड़वा घूंट पीते हैं। ये अनुभव हमारे जीवन का हिस्सा हैं। जब हमें सुख मिलता है तो हम खुश होते हैं, और जब दुख मिलता है तो हम बेचैन हो जाते हैं। हमारा मन इन बाहरी परिस्थितियों का गुलाम बन जाता है।
लेकिन क्या इन सुख-दुःख के परे कोई ऐसी अवस्था है जहाँ मन शांत और स्थिर रह सकता है? श्रीमद्भगवद गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 14 और 15 इसी गहरे सत्य को उजागर करते हैं।
श्लोक 14: सहने का अभ्यास
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
अर्थ: हे कुंतीपुत्र, इंद्रियों और उनके विषयों के संयोग से ही सर्दी, गर्मी, सुख और दुख की अनुभूति होती है। ये अनुभव आने-जाने वाले और क्षणिक होते हैं। इसलिए, हे भारतवंशज, तुम्हें इन्हें सहना सीखना चाहिए।
भावार्थ: हमारे शरीर और इंद्रियों का बाहरी दुनिया से संपर्क ही सुख और दुख को जन्म देता है। सोचिए, जब हम गर्म पानी से नहाते हैं तो सुख मिलता है, लेकिन वही पानी बहुत गर्म हो तो दुख देता है। इसी तरह, एक छोटा सा काम पूरा होने पर खुशी मिलती है, और वही काम बिगड़ जाए तो परेशानी होती है। ये भावनाएँ मौसम की तरह आती-जाती रहती हैं। न तो गर्मी हमेशा रहती है और न ही सर्दी।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि ये सभी अनुभव अस्थायी हैं। वे आते हैं और चले जाते हैं। हमें इन्हें अपने मन पर हावी नहीं होने देना चाहिए। जीवन में आने वाले सुख और दुख को सहना, उसे स्वीकार करना ही समझदारी है। यह हमें एक आंतरिक स्थिरता की ओर ले जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि हमें महसूस करना बंद कर देना है, बल्कि यह है कि हम भावनाओं को अपनी दिशा तय करने की अनुमति देना बंद कर देते हैं।
श्लोक 15: समभाव की ओर
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।
अर्थ: हे पुरुषश्रेष्ठ, जो व्यक्ति सुख और दुख में समान भाव रखता है और जो इन अनुभूतियों से विचलित नहीं होता, वही धीर पुरुष अमरता के योग्य होता है।
भावार्थ: जब आप इन द्वंद्वों को सहन करने का अभ्यास कर लेते हैं, तो आपका व्यक्तित्व बदल जाता है। यह श्लोक कहता है कि जो व्यक्ति सुख और दुख में समान भाव रखता है, जिसे ये बाहरी अनुभव परेशान नहीं करते, वही व्यक्ति अमरता के योग्य होता है।
समभाव का अर्थ निष्क्रियता नहीं है। यह भावनाओं की अनुपस्थिति नहीं है। बल्कि यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जहाँ आप अपने लक्ष्यों पर केंद्रित रहते हैं, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों। एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी नौकरी में तरक्की मिलने पर बहुत उत्साहित नहीं होता और पदोन्नति न मिलने पर बहुत निराश नहीं होता, वह वास्तव में मजबूत है। वह जानता है कि उसकी असली पहचान और खुशी बाहरी सफलताओं पर निर्भर नहीं करती।
ये श्लोक हमें सिखाते हैं कि सच्चा सुख बाहर नहीं, बल्कि भीतर है।
निष्कर्ष
जीवन में सुख और दुख आते-जाते रहेंगे। हमारी असली ताकत इन दोनों का समभाव से सामना करने में है। गीता हमें सिखाती है कि बाहरी परिस्थितियों को नियंत्रित करने के बजाय, हमें अपनी आंतरिक प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करना सीखना चाहिए। यही वह अभ्यास है जो हमें शांत, स्थिर और अंततः एक सार्थक जीवन जीने में मदद करता है।
तो अगली बार जब कोई सुख या दुख आए, तो याद रखें: यह भी बीत जाएगा। अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहें और अपने भीतर की शांति को बनाए रखें।
यदि आप भी अपने मन की उलझनों से जूझ रहे हैं, तो भगवद गीता में आपको समाधान मिल सकता है।
धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.
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