#57. गीता मनन: अध्याय 2 - श्लोक 11, 12, और 13 - ज्ञान की पहली किरण

गीता मनन की हमारी यात्रा जारी है। पिछले लेख में हमने देखा था कि कैसे अर्जुन अपने मोह और भ्रम में फँसकर पूरी तरह से हताश हो गए थे और उन्होंने भगवान कृष्ण से मार्गदर्शन माँगा था। अब, भगवान कृष्ण अर्जुन के शोक का सीधा जवाब देते हुए, उन्हें जीवन के सबसे गहरे सत्य से परिचित कराते हैं। इन श्लोकों में ज्ञान की पहली किरण फूटती है, जो अर्जुन के साथ-साथ हम सभी के जीवन की दिशा बदल सकती है।

आइए, दूसरे अध्याय के श्लोक 11, 12, और 13 के सार को समझते हैं।

श्लोक 11: शोक का त्याग

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। 

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।

अर्थ: भगवान कृष्ण कहते हैं, "तुम उन लोगों के लिए शोक कर रहे हो, जो शोक करने योग्य नहीं हैं, और फिर भी तुम विद्वानों जैसी बातें कर रहे हो। जो लोग वास्तव में ज्ञानी होते हैं, वे न तो जीवित के लिए शोक करते हैं और न ही मृत के लिए।"

यह श्लोक हम सबके लिए एक सीधा संदेश है। हम अक्सर उन चीज़ों पर शोक करते हैं जो अस्थायी हैं — जैसे नौकरी का छूटना, रिश्ते का टूटना, या कोई भौतिक वस्तु का खो जाना। हम जानते हैं कि जीवन में सब कुछ परिवर्तनशील है, फिर भी हम उनसे मोह रखते हैं और उनके जाने पर दुखी होते हैं। यह श्लोक हमें सिखाता है कि ज्ञानी व्यक्ति का मन उन चीज़ों में नहीं फँसता जो परिवर्तनशील हैं। वह जानता है कि शरीर और संसार की हर वस्तु नश्वर है।


श्लोक 12: आत्मा की अमरता

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। 

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।

अर्थ: भगवान कृष्ण समझाते हैं, "ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं, तुम, या ये सारे राजा मौजूद न हों। और न ही भविष्य में ऐसा कभी होगा कि हम मौजूद न हों।"

यह श्लोक आत्मा की अमरता का पहला और सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत बताता है। कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि तुम जिसे शरीर समझकर शोक कर रहे हो, वह तुम नहीं हो। तुम्हारा असली स्वरूप आत्मा है, जो न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। हमारी पहचान हमारे शरीर, हमारे पद या हमारे नाम से नहीं है, बल्कि हमारी आत्मा से है। यह ज्ञान हमें जीवन में आने-जाने वाले लोगों और परिस्थितियों से ऊपर उठकर सोचने की शक्ति देता है।


श्लोक 13: परिवर्तन एक प्राकृतिक नियम

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। 

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।

अर्थ: जिस तरह शरीर में जीवात्मा (आत्मा) बचपन, जवानी और बुढ़ापे से गुज़रती है, उसी तरह वह एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है। बुद्धिमान व्यक्ति इस परिवर्तन से कभी मोहित नहीं होता।

यह श्लोक आत्मा की यात्रा को एक सरल और relatable उदाहरण से समझाता है। सोचिए, हम बचपन से जवानी और फिर बुढ़ापे तक कैसे बदलते हैं। हमारा शरीर, हमारी सोच, सब कुछ बदल जाता है, लेकिन हम जानते हैं कि हमारा 'मैं' (हमारा अस्तित्व) वही रहता है।

ठीक इसी तरह, जब आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाती है, तो यह एक प्राकृतिक और सामान्य प्रक्रिया है। जैसे हम पुराने कपड़े छोड़कर नए पहनते हैं, वैसे ही आत्मा भी पुराने शरीर को छोड़कर नया धारण करती है। यह समझ हमें मृत्यु के भय और अपनों के खोने के शोक से मुक्ति दिलाती है।


इन श्लोकों का सामूहिक सार: ज्ञान की ओर पहला कदम

इन तीनों श्लोकों में, भगवान कृष्ण अर्जुन के दृष्टिकोण को शोक से ज्ञान की ओर मोड़ते हैं। अर्जुन को लगता था कि वह अपने परिवार को खो देगा, लेकिन कृष्ण उसे समझाते हैं कि तुम्हारा वास्तविक स्वरूप अमर है। यह शोक और मोह शरीर के लिए है, आत्मा के लिए नहीं।

आज के जीवन में भी हम यही गलती करते हैं। हम उन चीज़ों को खोने के डर में जीते हैं जो हमेशा नहीं रहेंगी - हमारा स्वास्थ्य, हमारा पैसा, हमारी सुंदरता। लेकिन ये श्लोक हमें सिखाते हैं कि हमें अपनी पहचान को बाहरी चीज़ों से नहीं जोड़ना चाहिए। हमारी सच्ची पहचान हमारी आत्मा है, और वह हमेशा सुरक्षित है।

यदि आप भी अपने मन की उलझनों से जूझ रहे हैं, तो भगवद गीता में आपको समाधान मिल सकता है।

धन्यवाद,
Madhusudan Somani,
Ludhiana, Punjab.

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